नई दिल्ली। सुप्रीम कोर्ट ने 28 मार्च 2025 को कांग्रेस के राज्यसभा सांसद इमरान प्रतापगढ़ी के खिलाफ गुजरात पुलिस द्वारा दर्ज एक एफआईआर को रद्द कर दिया। यह मामला प्रतापगढ़ी द्वारा सोशल मीडिया पर पोस्ट की गई एक कविता ‘ऐ खून के प्यासे बात सुनो’ से जुड़ा था, जिसे गुजरात पुलिस ने धार्मिक समूहों के बीच दुश्मनी बढ़ाने और राष्ट्रीय एकता को नुकसान पहुंचाने वाला माना था।
कोर्ट ने अपने फैसले में अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता को एक स्वस्थ सभ्य समाज का अभिन्न अंग बताया और कहा कि कविता से कोई अपराध नहीं बनता। यह निर्णय जस्टिस अभय एस. ओका और उज्जल भुइयां की पीठ ने सुनाया।
जामनगर पुलिस ने दर्ज की थी शिकायत
मामले की शुरुआत 3 जनवरी 2025 को हुई, जब जामनगर पुलिस ने प्रतापगढ़ी के खिलाफ एक वकील के क्लर्क की शिकायत पर एफआईआर दर्ज की। शिकायत में कहा गया था कि इंस्टाग्राम पर पोस्ट किए गए 46 सेकंड के वीडियो में कविता की पंक्तियां सामाजिक सौहार्द को बिगाड़ सकती हैं।
गुजरात हाई कोर्ट ने 17 जनवरी को इस एफआईआर को रद्द करने से इनकार कर दिया था और कहा था कि कविता में ‘सिंहासन’ जैसे शब्द सामाजिक अशांति पैदा कर सकते हैं। हाई कोर्ट ने यह भी टिप्पणी की थी कि एक सांसद होने के नाते प्रतापगढ़ी को जिम्मेदारी से व्यवहार करना चाहिए था। इसके बाद प्रतापगढ़ी ने सुप्रीम कोर्ट का रुख किया।
सम्मानजनक जीवन के लिए अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता अनिवार्य
सुप्रीम कोर्ट ने सुनवाई के दौरान गुजरात पुलिस की संवेदनशीलता पर सवाल उठाए। 3 मार्च को जस्टिस ओका ने कहा था कि यह कविता अहिंसा का संदेश देती है, जैसा कि महात्मा गांधी ने अपनाया था। कोर्ट ने अपने अंतिम फैसले में कहा कि कविता, कला और व्यंग्य जैसे साहित्यिक माध्यम मानव जीवन को समृद्ध करते हैं और इनकी आजादी को संरक्षित करना जरूरी है। कोर्ट ने यह भी नोट किया कि संविधान के अनुच्छेद 21 के तहत सम्मानजनक जीवन के लिए अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता अनिवार्य है।
प्रतापगढ़ी ने कोर्ट के फैसले का किया स्वागत
इस फैसले को अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता के पक्ष में एक महत्वपूर्ण कदम माना जा रहा है। प्रतापगढ़ी एक प्रसिद्ध उर्दू कवि भी हैं। उन्होंने इस निर्णय का स्वागत किया। दूसरी ओर, गुजरात पुलिस की कार्रवाई को कोर्ट ने अतिसंवेदनशीलता का परिणाम बताया। यह मामला हाल के दिनों में कुणाल कामरा जैसे मामलों के साथ अभिव्यक्ति की सीमाओं पर चल रही बहस को भी मजबूत करता है। कोर्ट ने स्पष्ट किया कि असुरक्षित लोगों के मानकों से अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता को नहीं आंका जा सकता।